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कलम नहीं बेचेंगे


धन का दरोगा चाहे

कितना सताये, हमें

प्रण है शहीदों की क़सम नहीं बेचेंगे



सुविधा की समिधा से

यज्ञ करेंगे कभी,

दुविधा को अपना जनम नहीं बेचेंगे



लोगों ने तो नियमों को

नोंच नोंच खा ही लिया,

लेखनी आँख की शरम नहीं बेचेंगे



जेल में ही डालो, चाहे

गोलियों से भून
ही दो,

कवि हैं कबीर की कलम नहीं बेचेंगे


रचयिता : डॉ सारस्वत मोहन "मनीषी"

प्रस्तुति : अलबेला खत्री


जहाँ मिल जायेंगे हम-तुम, वहीं मंज़िल हमारी है


दृगों ने चौंक कर पल-पल तुम्हारी छवि निहारी है

तुम्हारी याद में लगता है कि हर आहट तुम्हारी है



अधर पर याद अधरों की सुलगती रक्तचंदन सी

अरे, शत तृप्तियों से भी महकती प्यास प्यारी है



जले जब प्यास चातक की उमड़ आते निष्ठुर घन भी

कहो, मैं मान लूँ कैसे कि तुमने सुधि बिसारी है



क्षितिज के रहस-कुंजोंमें छिपी हो नीलिमा बन कर

तुम्हारी मांग कुमकुम से उषाओं ने संवारी है



तुम्हारे ही लिए अब तक रुका हूँ राह में, साथी

जहाँ मिल जायेंगे हम-तुम, वहीं मंज़िल हमारी है



मरण और जन्म छोरों से परे यदि ज़िन्दगी कोई

कटी होगी, कटेगी जिस तरह हमने गुज़ारी है


ग़ज़ल : चिरंजीत

प्रस्तुति : अलबेला खत्री



शीन काफ़ निज़ाम के दोहे



ये कैसा इनआम है , ये कैसी सौगात


दिन देखे जुग होगए, जब जागूं तब रात




सांझ, सबेरा, रात, दिन, आंधी, बारिश, धूप


इन्द्र धनुष के सात रंग, उस के सौ सौ रूप




बुढ़िया चरखा कातती, हो गई क्या अनहूत


झपकी से झटका लगा , गया साँस का सूत




पतझड़ की रुत गयी, चलो आपने देस


चेहरा पीला पड़ गया , धोले हो गए केस



याद आई परदेस में, उसकी इक-इक बात


घर का दिन ही दिन मियाँ , घर की रात ही रात



वो सब की पहचान है, सब उसके अनुरूप


शाइर, शे' और शायरी, सभी शब्द के रूप



चौपालें चौपट हुईं, सहन में सोया सोग


अल्ला जाने क्या हुए, आल्हा गाते लोग



हम 'कबीर' कलिकाल के, खड़े हैं खाली हाथ


संग किसी के हम नहीं और हम सब के साथ



मन में धरती सी ललक, आँखों में आकाश


याद के आँगन में रहा, चेहरे का परकाश



शायर : शीन काफ़ निज़ाम

प्रस्तुति : अलबेला खत्री


इश्क़ की चोट खाने को दिल चाहिए


आग पी कर पचाने को दिल चाहिए

इश्क़ की चोट खाने को दिल चाहिए



नाम सुकरात का तो सुना है बहुत

मौत से मन लगाने को दिल चाहिए



अपने हम्माम में कौन नंगा नहीं

आईना बन के जाने को दिल चाहिए



राख हो कर शलभ ने शमा से कहा

अपनी हस्ती मिटाने को दिल चाहिए



आम यूँ तो बहुत ढाई अक्षर मगर

प्यार कर के निभाने को दिल चाहिए


ग़ज़ल : आत्म प्रकाश शुक्ल

प्रस्तुति : अलबेला खत्री


विष्णु नागर की तीन कवितायें



दोस्तों !


मेरे दुश्मनों से मिलो


ये भी अच्छे लोग हैं


फ़र्क ये है


कि ये मेरे प्रशंसक नहीं हैं







रात के दो बज चुके थे


मैं इस नतीजे पर पहुंचा


कि अब मुझे किताब बन्द कर


सो जाना चाहिए


अँधेरा था


मैं बिस्तर में था


किताब बन्द थी


मैं आगे के पृष्ठ पढ़ रहा था







वे भजन करते थे


उन्हें मिला स्वर्ग


मैं गाने गाता था


मुझे मिलना ही था नर्क


स्वर्ग में भी उन्हें भजन करना था


क्योंकि स्वर्ग में उन्हें रहना था




प्रस्तुति : अलबेला खत्री


कवि सम्मेलन में आज

एक शानदार ग़ज़ल के साथ उपस्थित हैं

श्री राजेन्द्र तिवारी.........

लीजिये..बांचिये इनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल

और अपना मूड खुशनुमा कीजिये




जब से खेमों में बँट गई ग़ज़लें


अपने मक़सद से हट गई ग़ज़लें



क़द हमारे बड़े हुए लेकिन


दायरों में सिमट गई ग़ज़लें



मेरे माज़ी के ख़ुशनुमा पन्ने


जाने क्यों उलट गई ग़ज़लें



जो मेरा नाम तक लेते थे


उन रकीबों को रट गई ग़ज़लें



मुझको देखा अगर उदास कभी


मुझसे कर लिपट गई ग़ज़लें


-प्रस्तुति : अलबेला खत्री


यों आए वो रात ढले

जैसे जल में जोत जले



मन में नहीं यह आस तेरी

चिन्गारी है राख तले



हर रुत में जो हँसते हों

फूलों से वो ज़ख्म भले



वक्त का कोई दोष नहीं

हम ही अपने साथ चले



आँख जिन्हें टपका सकी

शे'रों में वे अश्क ढले


________शायर - नरेश कुमार 'शाद'

________प्रस्तुति - अलबेला खत्री




"प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है" ग़ज़ल से

चर्चित हुए शायर और 'काव्या' पत्रिका के संपादक हस्ती मल

'हस्ती' जितनी उम्दा ग़ज़लें कहते हैं उतनी ही कारीगरी से दोहे

भी रचते हैं


लीजिये आज कवि सम्मेलन में अब वे प्रस्तुत हैं अपने दोहों के

साथ................आनन्द लीजिये....




पार
उतर जाए कुसल किसकी इतनी धाक


डूबे अखियन झील में बड़े - बड़े तैराक



जाने किससे है बनी, प्रीत नाम की डोर


सह जाती है बावरी, दुनिया भर का ज़ोर



होता बिलकुल सामने प्रीत नाम का गाँव


थक जाते फिर भी बहुत राहगीर के पाँव



फीकी है हर चुनरी, फीका हर बन्देज


जो रंगता है रूप को वो असली रंगरेज




तन बुनता है चदरिया, मन बुनता है पीर


एक जुलाहे सी मिली, शायर को तक़दीर



प्रस्तुति : अलबेला खत्री



जालना की नवोदित कवयित्री एवं शायरा नूरी अज़ीज़

की दिलकश आवाज़ और उम्दा ग़ज़ल का मज़ा लीजिये

यह वीडियो महाराष्ट्र के
लातूर शहर के हास्य कवि सम्मेलन का है

जहाँ मैंने नूरी को पहली बार सुना था.......



लीजिये महफ़िल जवान होती जा रही है ..........


आज इस रंगारंग सिलसिले में तशरीफ़ फरमा हैं जनाब ...............


जनाबों के जनाब उस्ताद फ़िराक गोरखपुरी...........


प्रस्तुत हैं उनके कुछ दोहे _



नया घाव
है प्रेम का जो चमके दिन-रात


होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात




यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत




जो मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग


होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग




जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर


अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर




कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय


तेरा घर जो छोड़ दे, दर-दर ठोकर खाय




जगत-धुदलके में वही चित्रकार कहलाय


कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय




बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़


हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन-भीड़




याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार


जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार




मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़


गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़




दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम


मन-मन्दिर की यात्रा,मूरख चारों धाम



वेद,पुराण और शास्त्रों को मिली उसकी थाह


मुझसे जो कुछ कह गई , इक बच्चे की निगाह



______
रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी


________प्रस्तुति
- अलबेला खत्री