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ज़िन्दगी

इक हादिसा है

और कैसा हादिसा


मौत से भी

ख़त्म जिसका

सिलसिला होता नहीं


रचयिता : जिगर मुरादाबादी

प्रस्तुति : अलबेला खत्री


watch & enjoy

laughter ke phatke

by albela khatri & abhijeet sawant

new year special episod on STAR ONE

31 dec. 2009 10 P.M.












राज़े-हस्ती राज़ है जब तक कोई महरम हो


खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं




तेरे आज़ाद बन्दों की ये दुनिया वो दुनिया


यहाँ मरने की पाबन्दी, वहां जीने की पाबन्दी




मुझे रोकेगा तू नाखुदा क्या ग़र्क होने से


कि जिनको डूबना हो, डूब जाते हैं सफ़ीने में



रचयिता : इकबाल

प्रस्तुति : अलबेला खत्री








आँख के खामोश पानी


मत बहो


स्थिर रहो तुम


मोल क्या है इस जगत में


इक नन्हीं बूंद का


ठहरो स्वाति द्वार पर


फिर ज़रा मोती बनो तुम


मत बहो


स्थिर रहो तुम




रचयिता : पूनम गुजरानी


प्रस्तुति : अलबेला खत्री








पश्चिम से हवा ही


ऐसी चली कि


हम गुलाम हो गये हैं


संस्कारों में


ये कैसा तेज़ाब भर गया है ?


जिसने


सबको जला डाला


अंकुरित फूल की जगह


कंटीले झाड़ उग आये हैं


संगमरमर की दीवारों पे


पीली घास उग आई है


बीमार हूँ मैं,


लेकिन


घर के आँगन में


धुओं के साये हैं



रचयिता : प्रभा जैन

प्रस्तुति : अलबेला खत्री









जहाँ तक दीठ जाती है


फैली हैं नंगी तलैटियाँ


एक-एक कर सूख गये हैं


नाले,नौले और सोते


कुछ भूख, कुछ अज्ञान और कुछ लोभ में


अपनी संपदा हम रहे हैं खोते


ज़िन्दगी में जो रहा नहीं ,


याद उसकी


बिसूरते लोकगीतों में


कहाँ तक रहेंगे संजोते ?




रचयिता : अज्ञेय


प्रस्तुति : अलबेला खत्री









लड़कियां हिन्दू थीं

लड़कियां मुसलमान थीं

धौलपुर से दुबई तक

बिक्री आसान थीं

लड़कियां जवान थीं



रचयिता : अक्षय जैन

प्रस्तुति : अलबेला खत्री








मौत का भी इलाज हो शायद

ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं



समझने की ये बातें हैं समझाने की

ज़िन्दगी उचटी हुई नींद है दीवाने की



गुर ज़िन्दगी के सीखे खिलती हुई कली से

लब पर है मुस्कुराहट दिल खून रो रहा है



रचयिता : फ़िराक गोरखपुरी

प्रस्तुति : अलबेला खत्री







आदि धर्म


मैंने जब तू को पहना


तो दोनों के बदन अन्तर्ध्यान थे


अंग फूलों की तरह गूंथे गये


और रूह की दरगाह पर अर्पित हो गये .....



तू और मैं हवन की अग्नि


तू और मैं सुगन्धित सामग्री


एक दूसरे का नाम होठों से निकला


तो वही नाम पूजा के मंत्र थे,


यह तेरे और मेरे


अस्तित्व का एक यज्ञ था


धर्म-कर्म की कथा


तो बहुत बाद की बात है ....



रचयिता : अमृता प्रीतम


प्रस्तुति : अलबेला खत्री




# देखना भूलें आज की रात ठीक दस बजे


ALBELA KHATRI'S LAUGHTER KE PHATKE

TONIGHT 17 DEC. 10 P.M. ON STAR ONE







मंच जब से अर्थदायक हो गए


तोतले भी गीतगायक हो गए


राजनैतिक मूल्य कुछ ऐसे गिरे


जेबकतरे तक विधायक हो गए




रचयिता : तेजनारायण शर्मा 'बेचैन'


प्रस्तुति : अलबेला खत्री



# lauuhter ke phatke with albela khatri

17 dec. 10.00 P.M. on STAR ONE









___यह मेरा अनुरागी मन


रस माँगा करता कलियों से

लय माँगा करता अलियों से

संकेतों से बोल मांगता -

दिशा मांगता है गलियों से



जीवन का लेकर इकतारा

फिरता बन बादल आवारा


___सुख-दुःख के तारों को छूकर

___गाता है बैरागी मन

___यह मेरा अनुरागी मन




कहाँ किसी से माँगा वैभव,

उसके हित है सब कुछ सम्भव

सदा विवशता का विष पी कर

भर लेता झोली में अनुभव



अपनी धुन में चलने वाला

परहित पल-पल जलने वाला


___बिन मांगे दे देता सब कुछ

___मेरा इतना त्यागी मन

___यह मेरा अनुरागी मन




रचयिता : सरस्वती कुमार 'दीपक'


प्रस्तुति : अलबेला खत्री







एक दिन भी जी मगर तू ताज बन कर जी

अटल विश्वास बन कर जी

अमर युग गान बन कर जी



आज तक तू समय के पदचिन्ह सा ख़ुद को मिटा कर

कर रहा निर्माण जग-हित एक सुखमय स्वर्ग सुन्दर

स्वार्थी दुनिया मगर बदला तुझे यह दे रही है-

भूलता यह-गीत तुझको ही सदा तुझसे निकल कर

'कल' बन तू ज़िन्दगी का 'आज' बन कर जी

जगत सरताज बन कर जी



जन्म से तू उड़ रहा निस्सीम इस नीले गगन पर

किन्तु फिर भी छाँह मंज़िल की नहीं पड़ती नयन पर

और जीवन-लक्ष्य पर पहुंचे बिना जो मिट गया तू-

जग हँसेगा ख़ूब तेरे इस करुण असफल मरण पर

मनुज !मत विहग बन, आकाश बन कर जी

अटल विश्वास बन कर जी



एक युग की आरती पर तू चढ़ाता निज नयन ही

पर कभी पाषाण क्या ये पिघल पाए एक क्षण भी

आज तेरी दीनता पर पड़ रही नज़रें जगत की

भावना पर हँस रही प्रतिमा धवल, दीवार मठ की

मत पुजारी बन स्वयं भगवान् बन कर जी

अमर युग गान बन कर जी




रचयिता : पद्मश्री गोपालदास 'नीरज'


प्रस्तुति : अलबेला खत्री









कौन है ? सम्वेदना !

कह दो अभी घर में नहीं हूँ



कारखाने में बदन है

और मन बाज़ार में

साथ चलती ही नहीं

अनुभूतियाँ व्यापार में

__क्यों जगाती चेतना

__मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ



यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो

महज सामान है

फर्म है परिवार

सारी ज़िन्दगी दूकान है

__स्वयं को है बेचना

__इस वक्त अवसर में नहीं हूँ



फिर कभी आना

कि जब ये हाट उठ जाए मेरी

आदमी हो जाऊँगा

जब साख लुट जाए मेरी

__प्यार से फिर देखना

__मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ



रचयिता : महेश अनघ


प्रस्तुति : अलबेला खत्री









हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए


इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए



आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी


शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए



हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में


हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए



सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं


मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए



मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही


हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए




रचयिता - दुष्यंत कुमार


प्रस्तुति - अलबेला खत्री





एक दिन

पर्यावरण की सुरक्षा पर

कोई कार्यक्रम नहीं हुआ

जनसँख्या-विस्फोट पर

नहीं प्रकट की गई कोई चिन्ता

कला की शर्तें

पूरी करने के लिए

नीलामी नहीं बोली गई

सच की, या ईमान की



एक दिन

मृत्यु नहीं हुई किसी कवि की

या कविता की

नहीं बैठा कोई विद्वान

किसी पूर्वज की पीठ पर

ही कोई पुरस्कार बंटा

तालियाँ बजीं

उस दिन

कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त

करने की

कोई नई कोशिश नहीं हुई

कोई हत्या,डकैती,राहजनी हुई

कोई व्यापार समझौता

उस दिन

नहीं छपे पूरी दुनिया के अखबार



अद्भुत था वह एक दिन

जो नहीं था

वास्तव में कभी

पर सोचते हैं सभी

कि था कभी ऐसा एक दिन

जीने के वास्ते

या कि होगा ?



रचयिता : कात्यायनी

प्रस्तुति : अलबेला खत्री






तुलसी के दोहे


स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोई नाहिं


सेवें पक्षी सरस तरु, निरस भये उड़ जाहिं



नीच नीच सब तरि गए, सन्त चरण लौलीन


जातिहि के अभिमान ते, डूबे बहुत कुलीन




रचयिता - गोस्वामी तुलसी दास

प्रस्तुति - अलबेला खत्री