सोचिये, किनके इशारों पर प्रभाती गा रही है
ये हवा जो सामने से सर उठा कर आ रही है
मैं इसी आबो-हवा का रुख बदलना चाहता हूँ
रोज़ जिसमें सभ्यता की नथ उतारी जा रही है
देखिएगा उन घरों को, टूट कर बिखरे हुए हैं
एकता जिन-जिन घरों में, एकताएं ला रही हैं
आप जिन रंगीनियों की सोच में डूबे हुए हैं
वो हमारी नस्ल की खुद्दारियों को खा रही है
मैं नशेमन में अकेला बैठ कर ये सोचता हूँ
ये हवा इस अंजुमन को क्यूँ नवाज़ी जा रही है
रचयिता : तेजनारायण शर्मा 'बेचैन'
प्रस्तुति : अलबेला खत्री