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आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है

प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है



अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ

साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है



ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना

बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है



रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल करना

ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है



कितनी ऊँची है नीचाई इस भोले सौदाई की

आसमान होकर, धरती पर पाँव पाँव ये चलता है


रचयिता : माणिक वर्मा

प्रस्तुति : अलबेला खत्री











पावस ऋतु


पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश

पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश !

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्त्रदृग सुमन फाड़

अवलोक रहा है बार-बार

नीचे जल में निज महाकार,

जिसके चरणों में पड़ा ताल

दर्पण सा फैला है विशाल !



गिरि का गौरव गाकर झर-झर

मद से नस-नस उत्तेजित कर

मोती की लड़ियों से सुंदर !

झरते हैं झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर

उच्चाकांक्षाओं - से तरुवर

हैं झांक रहे नीरव नभ पर,

अनिमेष,अटल, कुछ चिन्ता पर !



उड़ गया अचानक, लो भूधर !

फड़का अपार वारिद के पर !

रव-शेष रह गए हैं निर्झर !

है टूट पड़ा भू पर अम्बर !

धँस गए धरा में समय शाल !

उठ रहा धुंआ, जल गया ताल !

-यों जल्द यान में विचर-विचर,

था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल !




रचयिता : सुमित्रानन्दन "पंत"


प्रस्तुति : अलबेला खत्री









लीडरी का लोभ 'काका' इसलिए नहीं छोड़ता हूँ

बैठ कर आराम से,आराम कुर्सी तोड़ता हूँ



बोल कर 'जयहिंद' बन्दा शुद्ध खादी धारता है

मंच के ऊपर पहुँच, लम्बी छलांगें मारता है

देख कर झंडा तिरंगा हाथ दोनों जोड़ता हूँ



जब नशीली वस्तुओं को दे के धरना रोकता था

जो कोई आता पियक्कड़, मैं उसी को टोकता था

आजकल तो बोतलों पर बोतलें नित फोड़ता हूँ



नेतागीरी की बदौलत काम मेरा चल रहा था

आज तक इसके सहारे घास दाना मिल रहा था

इसलिए मैं नोट देकर, वोट उनके तोड़ता हूँ



जिस तरह भी हो सके, धन रात-दिन पैदा करूँगा

है यही विश्वास मन में मार कर सबको मरूँगा

शर्म के परदे में छिप, बेशर्म चादर ओढ़ता हूँ



तोड़ कर कंट्रोल-परमिट, माल अपना बेचता हूँ

जी-हुजूरी की बदौलत, खूब खुल कर खेलता हूँ

दोस्तों की महफ़िलों में डींग लम्बी छोड़ता हूँ



राम जी ऊँचा रखे, सरकार का रंगीन झंडा

तब तो आलू भी थे, अब खा रहे भरपेट अंडा

फाड़ कर परमार्थ-पौधा, स्वार्थ अपना ढूंढता हूँ




रचयिता : काका हाथरसी


प्रस्तुति : अलबेला खत्री








मैं फिर भी गा रहा हूँ



कितना उदास मौसम, मैं फिर भी गा रहा हूँ


सरगम नहीं है सरगम, मैं फिर भी गा रहा हूँ




ये दर्द का समन्दर, ये डूबता सफ़ीना


चारों तरफ़ है मातम, मैं फिर भी गा रहा हूँ




सपनों का आसरा था, ये भी सहम गए हैं


सहमा हुआ है आलम, मैं फिर भी गा रहा हूँ




कहते हैं जिनको आँसू, अब वे भी थम गए हैं



कोई नहीं है हमदम, मैं फिर भी गा रहा हूँ





जलता हुआ नशेमन, इसके सिवा कहे क्या ?


ये ज़ुल्म है बहुत कम, मैं फिर भी गा रहा हूँ



रचयिता : बालकवि बैरागी


प्रस्तुति : अलबेला खत्री






इसे
जगाओ......



भई सूरज,

ज़रा इस आदमी को जगाओ,


भई पवन,

ज़रा इस आदमी को हिलाओ,


यह आदमी जो सोया पड़ा है

जो सच से बेख़बर

सपनों में खोया पड़ा है


भई पंछी,

इसके कानों पर चिल्लाओ !


भई सूरज,

ज़रा इस आदमी को जगाओ



वक्त पर जगाओ,

नहीं तो जब बेवक्त जागेगा यह

तो जो आगे निकल गए हैं

उन्हें पाने

घबरा के भागेगा यह,

घबरा के भागना अलग है

क्षिप्र गति अलग है

क्षिप्र तो वह है

जो सही क्षण में सजग है


सूरज, इसे जगाओ !

पवन,इसे हिलाओ !

पंछी,इसके कानों पर चिल्लाओ !



रचयिता : भवानीप्रसाद मिश्र


प्रस्तुति : अलबेला खत्री





हो
गया है हर इकाई का विभाजन

राम जाने गिनतियाँ कैसे बढ़ेंगी ?




अंक अपने आप में पूरा नहीं है

इसलिए कैसे दहाई को पुकारे


मान, अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का

कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे


जोड़-बाकी एक से दिखने लगते हैं

राम जाने पीढियां कैसे पढ़ेंगी ?




शेष जिसमें कुछ नहीं ऐसी इबारत

ग्रन्थ के आकार में आने लगी है


और मजबूरी, बिना हासिल किए कुछ

साधनों का कीर्तन गाने लगी है


मांग का मुद्रण नहीं करती मशीनें

राम जाने कीमतें कितनीं ढेंगी ?




भूल बैठे हैं, गणित, व्यवहार का हम

और बिल्कुल भिन्न होते जा रहे हैं


मूलधन इतना गंवाया है कि ख़ुद से

ख़ुद--ख़ुद ही खिन्न होते जा रहे हैं


भाग दें तो भी बड़ी मुश्किल रहेगी

राम जाने सर्जनाएं क्या गढेंगी ?



रचयिता : मुकुट बिहारी सरोज


प्रस्तुति : अलबेला खत्री











बरसता रहे इसी तरह

दिन भर, रात भर

अंत-श्रावण का यह मेघ


भिगोता रहे इसी तरह

खेतिहर मज़दूर - मज़दूरनियों

के अंग- अंग

अंत श्रावण का यह मेघ



सुनता रहे इसी तरह

रिक्शा वाले दिलफेंक

छोकरे की गाली

अंत श्रावण का यह मेघ



लोको के आस पास

अर्धदग्ध छिटके-फिके

कोयले चुनती

बड़ी आँखों वाली छोकरी का

उलाहना भी

सुनता रहे इसी तरह

अंत श्रावण का यह मेघ



तर--तर करता रहे

इसी तरह

अलसी के तेल से चिकनाया

उसका जूड़ा

अंत श्रावण का यह मेघ



रचयिता : नागार्जुन

प्रस्तुति : अलबेला खत्री





मैं उनका ही होता,


जिन में मैंने रूप-भाव पाये हैं



वे मेरे ही हिये बंधे हैं


जो मर्यादायें लाये हैं




मेरे शब्द,भाव उनके हैं,


मेरे पैर और पथ मेरा,


मेरा अंत और अथ मेरा,


ऐसे किन्तु चाव उनके हैं




मैं ऊँचा होता चलता हूँ


उनके ओछेपन से गिर-गिर,


उनके छिछलेपन से ख़ुद-ख़ुद,


मैं गहरा होता चलता हूँ




रचयिता : जानन. मा. मुक्तिबोध

प्रस्तुति : अलबेला खत्री .


अमेरिका निवासी डॉ सुदर्शन 'प्रियदर्शिनी'

अत्यन्त सौम्य और मर्मस्पर्शी कवितायें करती हैं .

आज कवि सम्मेलन में इनकी कविता का आनन्द लीजिये....



________चेहरा


इस धुन्धयाये

खण्डित

सहस्त्र दरारों वाले

दर्पण में

मुझे अपना चेहरा

साफ़ नहीं दिखता



जब कभी

खण्डित कोने से

दीख जाता है

तो

कहीं अहम्

कहीं स्वार्थ की

बेतरतीब लकीरों से

कता-पिटा होता है




रचयिता : डॉ सुदर्शन 'प्रियदर्शिनी'


प्रस्तुति : अलबेला खत्री




फूल विहँसता, शूल मौन है


__एक डाल के दोनों साथी

__दोनों को ही हवा झुलाती

फूल झरेगा, शूल रहेगा, सत्य कौन है, भूल कौन है ?



लहर नाचता, कूल मौन है


__एक पन्थ के दोनों साथी

__दोनों को किरणें नहलाती

लहर मिटेगी, कूल रहेगा, सत्य कौन है, भूल कौन है ?




चरना बोलता, धूल मौन है


__युग-युग के दोनों हैं साथी

__दोनों पर ही नभ की छाती

चरण रुकेगा, धूल चलेगी, सत्य कौन है, भूल कौन है ?




रचयिता : कन्हैयालाल सेठिया


प्रस्तुति : अलबेला खत्री






क्या
कहा कि यह घर मेरा है ?


जिसके रवि ऊगे जेलों में,


संध्या होवे वीरानों में,


उसके कानों में क्यों कहने


आते हो ? यह घर मेरा है ?




है नील चँदोवा तना कि झूमर


झालर उसमे चमक रहे


क्यों घर की याद दिलाते हो,


तब सारा रैन बसेरा है ?




जब चाँद मुझे नहलाता है,


सूरज रौशनी पिन्हाता है,


क्यों दीपक लेकर कहते हो,


यह तेरा है, यह मेरा है ?




ये आए बादल घूम उठे,


ये हवा के झोंके झूम उठे,



बिजली की चमचम पर चढ़ कर


गीले मोती भू चूम उठे,



फ़िर सनसनाट का ठाठ बना,


गई हवा, कजली गाने,



आगई रात, सौगात लिए,


ये गुलसब्बो मासूम उठे,



इतने में कोयल बोल उठी,


अपनी तो दुनिया डोल उठी,



यह अन्धकार का तरल प्यार,


सिसके जब आई बन मलार,



मत घर की याद दिलाओ तुम,


अपना तो काला डेरा है






कलरव,बरसात,हवा,ठंडी,


मीठे दाने, खारे मोती,



सब कुछ ले, लौटाया कभी,


घर वाला महज लुटेरा है






हो मुकुट हिमालय पहनाता,


सागर जिसके पग धुलवाता,



यह बंधा बेड़ियों में मन्दिर,


मस्जिद, गुरुद्वारा मेरा है




क्या कहा कि यह घर मेरा है ?



रचयिता : माखनलाल चतुर्वेदी


प्रस्तुति : अलबेला खत्री







सुप्रसिद्ध कवयित्री एवं मधुर, सुरीली, कोकिल कंठी साहित्यकार

डॉ सीता सागर का अपना एक ख़ास अन्दाज़ है

अहमदाबाद में उनके साथ हास्य पिटारा किया तो

मुझे ये रचना बहुत पसन्द आई.....

आप भी आनन्द लीजिये...

- अलबेला खत्री