मना ले
घरौंदे से,
बाहर सिर निकाल,
कोई तो आवाज़ देकर उन्हें बुला लें.
तैयार हैं,
गगन से गिरने को जो,
कोई सीप मुँह खोल उन्हें अपने में समा लें.
समुद्र में,
रह कर भी प्यासे रहे,
कुछ अश्रु ही टपकें तो प्यास बुझा लें.
स्मृतियों की दीवारों पर,
इच्छाओं की छत्त डाल,
चलो एकान्त में घर अपना बना लें.
धैर्य का,
प्याला जब भी छलकने लगे,
मीठी सी हँसी से अकेलापन मिटा लें.
जीवन्त नज़रों,
और बोलते अधरों के साथ,
कोई तो आए जो 'सुधा' को मना ले.
रचयिता : सुधा ओम ढींगरा
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
सुधाजी की यह कविता
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9 comments:
राजीव तनेजा said...
सुंदर रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद
Udan Tashtari said...
सुधा जी की रचना पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया. बहुत भावपूर्ण रचना.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
सुधा ओम ढींगरा की रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
निर्मला कपिला said...
सुधा ओम ढीँगरा जी की रचना अच्छी लगी उन्हें बधाई आपका धन्यवाद्
डॉ टी एस दराल said...
दिल को छूती हुई रचना। आभार।
vandana gupta said...
andaz-e-bayan bahut badhiya hai.
शशि पाधा said...
मानव मन की तरह प्रकृति का कण- कण भी स्नेह की शीतल बूंदों के लिये लालायित रहता है । क्यों न हम इस भीगे अह्सास को सभी के साथ बाँट लें? सुन्दर शब्दों में इस सरस संदेश के लिये सुधा जी का धन्यवाद तथा आपका आभार ।
शशि पाधा
Devi Nangrani said...
समुद्र में,
रह कर भी प्यासे रहे,
कुछ अश्रु ही टपकें तो प्यास बुझा लें.
Bahut sunder abhivuyakti.
Albela ji ko tahe dil se badhayi is manch ko yoon sajane ke liye.
haidabadi said...
सुधा दीदी
कमाल की रचना है झिमिलाती बालियों झनझनाती झंजरो
और खनखनाती चूड़ियों की तरह शब्द पिरोने में आप माहिर हैं
अक्सर पढता हूँ आपकी रचनायों में दोआब बहता है
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क