ज़िन्दगी इक हादिसा है और कैसा हादिसा
मौत से भी ख़त्म जिसका सिलसिला होता नहीं
अक्ल बारीक हुई जाती है
रूह तारीक हुई जाती है
काँटों का भी हक़ है आखिर
कौन छुड़ाये अपना दामन
इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होता
रचयिता : जिगर मुरादाबादी
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
4 comments:
अमिताभ मीत said...
ज़िन्दगी इक हादिसा है और कैसा हादिसा
मौत से भी ख़त्म जिसका सिलसिला होता नहीं
इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होता
wah !
डॉ टी एस दराल said...
काँटों का भी हक़ है आखिर
कौन छुड़ाये अपना दामन
बहुत खूब।
Urmi said...
वाह वाह क्या बात है! बहुत खूब !
पूनम श्रीवास्तव said...
waah,bahut hi sundar post.sach likha hai aapane.
poonam