यों आए वो रात ढले
जैसे जल में जोत जले
मन में नहीं यह आस तेरी
चिन्गारी है राख तले
हर रुत में जो हँसते हों
फूलों से वो ज़ख्म भले
वक्त का कोई दोष नहीं
हम ही न अपने साथ चले
आँख जिन्हें टपका न सकी
शे'रों में वे अश्क ढले
________शायर - नरेश कुमार 'शाद'
________प्रस्तुति - अलबेला खत्री
जैसे जल में जोत जले
मन में नहीं यह आस तेरी
चिन्गारी है राख तले
हर रुत में जो हँसते हों
फूलों से वो ज़ख्म भले
वक्त का कोई दोष नहीं
हम ही न अपने साथ चले
आँख जिन्हें टपका न सकी
शे'रों में वे अश्क ढले
________शायर - नरेश कुमार 'शाद'
________प्रस्तुति - अलबेला खत्री
5 comments:
आमीन said...
धन्यवाद
शाद जी की गजल पढाने के लिए
डॉ टी एस दराल said...
वक्त का कोई दोष नहीं
हम ही न अपने साथ चले
वाह, क्या बात है.
अच्छी प्रस्तुति.
समय चक्र said...
वक्त का कोई दोष नहीं
हम ही न अपने साथ चले
आँख जिन्हें टपका न सकी
शे'रों में वे अश्क ढले
नरेश कुमार जी गजलो की बात ही निराली है . बढ़िया प्रस्तुति.
Jandunia said...
सही बात है वक्त का कोई दोष नहीं होता। दोषी हम होते हैं जो मौकों को नहीं पहचान पाते। और जिंदगी भर पछताते हैं। अच्छी कविता है।
Urmi said...
वाह बड़ा ही शानदार और उम्दा ग़ज़ल ! अत्यन्त सुंदर !