ताज़ा टिप्पणियां

विजेट आपके ब्लॉग पर


कलम नहीं बेचेंगे


धन का दरोगा चाहे

कितना सताये, हमें

प्रण है शहीदों की क़सम नहीं बेचेंगे



सुविधा की समिधा से

यज्ञ करेंगे कभी,

दुविधा को अपना जनम नहीं बेचेंगे



लोगों ने तो नियमों को

नोंच नोंच खा ही लिया,

लेखनी आँख की शरम नहीं बेचेंगे



जेल में ही डालो, चाहे

गोलियों से भून
ही दो,

कवि हैं कबीर की कलम नहीं बेचेंगे


रचयिता : डॉ सारस्वत मोहन "मनीषी"

प्रस्तुति : अलबेला खत्री


This entry was posted on 11:11 PM and is filed under . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

2 comments:

    विनोद कुमार पांडेय said...

    बेहद उम्दा सोच और उससे सजी खूबसूरत बात...यही हुंकार हर नागरिक का होना चाहिए...बढ़िया कविता..बधाई!!

  1. ... on November 1, 2009 at 1:00 AM  
  2. डॉ टी एस दराल said...

    कवि हैं कबीर की कलम नहीं बेचेंगे
    वाह, उत्तम विचार.
    साधुवाद

  3. ... on November 1, 2009 at 7:26 AM