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धन का दरोगा चाहे कितना सताये हमें,

प्रण है शहीदों की क़सम नहीं बेचेंगे


सुविधा की समिधा से यज्ञ करेंगे कभी,

दुविधा को अपना जनम नहीं बेचेंगे


लोगों ने तो नोंच नोंच खा ही लिया नियमों को,

लेखनी आँख की शरम नहीं बेचेंगे


ज़िन्दा गड़वा दो चाहे गोलियों से भून ही दो,

कवि हैं कबीर की कलम नहीं बेचेंगे



रचयिता : डॉ सारस्वत मोहन 'मनीषी'

प्रस्तुति : अलबेला खत्री





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