एक दिन
पर्यावरण की सुरक्षा पर
कोई कार्यक्रम नहीं हुआ ।
जनसँख्या-विस्फोट पर
नहीं प्रकट की गई कोई चिन्ता ।
कला की शर्तें
पूरी करने के लिए
नीलामी नहीं बोली गई
सच की, या ईमान की
एक दिन
मृत्यु नहीं हुई किसी कवि की
या कविता की
नहीं बैठा कोई विद्वान
किसी पूर्वज की पीठ पर
न ही कोई पुरस्कार बंटा
न तालियाँ बजीं ।
उस दिन
कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त
करने की
कोई नई कोशिश नहीं हुई
न कोई हत्या,डकैती,राहजनी हुई
न कोई व्यापार समझौता ।
उस दिन
नहीं छपे पूरी दुनिया के अखबार ।
अद्भुत था वह एक दिन
जो नहीं था
वास्तव में कभी
पर सोचते हैं सभी
कि था कभी ऐसा एक दिन
जीने के वास्ते
या कि होगा ?
रचयिता : कात्यायनी
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
2 comments:
Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...
कात्यानी जी की रचना पढवाने के लिए धन्यवाद!
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टिप्पणी कीजिये खूब कोई शरारत ना कीजिये - ग़ज़ल
डॉ टी एस दराल said...
बहुत गहरी बात कही है कविता में।
आभार इस प्रस्तुति के लिए।