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कौन है ? सम्वेदना !

कह दो अभी घर में नहीं हूँ



कारखाने में बदन है

और मन बाज़ार में

साथ चलती ही नहीं

अनुभूतियाँ व्यापार में

__क्यों जगाती चेतना

__मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ



यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो

महज सामान है

फर्म है परिवार

सारी ज़िन्दगी दूकान है

__स्वयं को है बेचना

__इस वक्त अवसर में नहीं हूँ



फिर कभी आना

कि जब ये हाट उठ जाए मेरी

आदमी हो जाऊँगा

जब साख लुट जाए मेरी

__प्यार से फिर देखना

__मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ



रचयिता : महेश अनघ


प्रस्तुति : अलबेला खत्री






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4 comments:

    vandana gupta said...

    behad gahan...........satya ko ek alag aur anokhe andaz mein prastut kiya hai.........insaan ke astitv ko jhanjhodti rachna.........badhayi.

  1. ... on December 12, 2009 at 10:55 PM  
  2. निर्मला कपिला said...

    कारखाने में बदन है

    और मन बाज़ार में

    साथ चलती ही नहीं

    अनुभूतियाँ व्यापार में

    __क्यों जगाती चेतना

    __मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ ।
    बहुत सटीक् अभिव्यक्ति हैाज के आदमी पर धन्यवाद मेहश जी को बधाई

  3. ... on December 12, 2009 at 11:03 PM  
  4. सर्वत एम० said...

    फिर कभी आना

    कि जब ये हाट उठ जाए मेरी

    आदमी हो जाऊँगा

    जब साख लुट जाए मेरी

    __प्यार से फिर देखना

    __मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ
    कमाल कविता है भाई. एक सिहरन सी दौड़ गयी पूरे शरीर में. इतना बढिया कलेक्शन, आपको बधाई किन शब्दों में दूं, समझ में नहीं आता. आज के युग में जब हर व्यक्ति दुसरे की टांग खींचने में व्यस्त है, आप अन्य रचनाकारों को प्रकाशित कर रहे हैं, किस ग्रह के वासी हैं आप? अन्यथा
    न लीजियेगा, मैं प्रशंसा कर रहा हूँ.

  5. ... on December 13, 2009 at 6:38 AM  
  6. Toon Indian said...

    wah wah..aaj ke yug ki dastaan...awesome

  7. ... on December 13, 2009 at 10:43 PM