राज़े-हस्ती राज़ है जब तक कोई महरम न हो
खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं
तेरे आज़ाद बन्दों की न ये दुनिया न वो दुनिया
यहाँ मरने की पाबन्दी, वहां जीने की पाबन्दी
मुझे रोकेगा तू ऐ नाखुदा क्या ग़र्क होने से
कि जिनको डूबना हो, डूब जाते हैं सफ़ीने में
रचयिता : इकबाल
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
3 comments:
Kulwant Happy said...
इकबाल साहिब की तरह अगर दुनिया का हर व्यक्ति इकबाल-ए-जुर्म कर ले। शायद दुनिया से हसीं न होगी जन्नत अलबेला जी... मिलेगा का हर नुक्कड़ हासा, ठहाका और खुशियों का मेला जी... न लगेगा कोई पैसा थेला जी...आप गुरू और मैं चेला जी...
एनडी तिवारी के नाम खुला
डॉ टी एस दराल said...
वाह , वाह, बहुत खूब।
शायद किसी ओर इशारा कर रहे हैं।
Udan Tashtari said...
धन्यवाद इन्हें पेश करने का.