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राज़े-हस्ती राज़ है जब तक कोई महरम हो


खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं




तेरे आज़ाद बन्दों की ये दुनिया वो दुनिया


यहाँ मरने की पाबन्दी, वहां जीने की पाबन्दी




मुझे रोकेगा तू नाखुदा क्या ग़र्क होने से


कि जिनको डूबना हो, डूब जाते हैं सफ़ीने में



रचयिता : इकबाल

प्रस्तुति : अलबेला खत्री





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3 comments:

    Kulwant Happy said...

    इकबाल साहिब की तरह अगर दुनिया का हर व्यक्ति इकबाल-ए-जुर्म कर ले। शायद दुनिया से हसीं न होगी जन्नत अलबेला जी... मिलेगा का हर नुक्कड़ हासा, ठहाका और खुशियों का मेला जी... न लगेगा कोई पैसा थेला जी...आप गुरू और मैं चेला जी...

    एनडी तिवारी के नाम खुला

  1. ... on December 26, 2009 at 11:43 PM  
  2. डॉ टी एस दराल said...

    वाह , वाह, बहुत खूब।
    शायद किसी ओर इशारा कर रहे हैं।

  3. ... on December 27, 2009 at 1:52 AM  
  4. Udan Tashtari said...

    धन्यवाद इन्हें पेश करने का.

  5. ... on December 27, 2009 at 12:39 PM