जहाँ तक दीठ जाती है
फैली हैं नंगी तलैटियाँ
एक-एक कर सूख गये हैं
नाले,नौले और सोते
कुछ भूख, कुछ अज्ञान और कुछ लोभ में
अपनी संपदा हम रहे हैं खोते
ज़िन्दगी में जो रहा नहीं ,
याद उसकी
बिसूरते लोकगीतों में
कहाँ तक रहेंगे संजोते ?
रचयिता : अज्ञेय
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
4 comments:
मनोज कुमार said...
विचारोत्तेजक!
Himanshu Pandey said...
अज्ञेय की इस कविता-प्रस्तुति का आभार ।
M VERMA said...
बेहतरीन प्रस्तुति
निर्मला कपिला said...
बहुत सुन्दर धन्यवाद्