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जहाँ तक दीठ जाती है


फैली हैं नंगी तलैटियाँ


एक-एक कर सूख गये हैं


नाले,नौले और सोते


कुछ भूख, कुछ अज्ञान और कुछ लोभ में


अपनी संपदा हम रहे हैं खोते


ज़िन्दगी में जो रहा नहीं ,


याद उसकी


बिसूरते लोकगीतों में


कहाँ तक रहेंगे संजोते ?




रचयिता : अज्ञेय


प्रस्तुति : अलबेला खत्री






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4 comments:

    मनोज कुमार said...

    विचारोत्तेजक!

  1. ... on December 19, 2009 at 6:08 PM  
  2. Himanshu Pandey said...

    अज्ञेय की इस कविता-प्रस्तुति का आभार ।

  3. ... on December 19, 2009 at 6:08 PM  
  4. M VERMA said...

    बेहतरीन प्रस्तुति

  5. ... on December 19, 2009 at 7:41 PM  
  6. निर्मला कपिला said...

    बहुत सुन्दर धन्यवाद्

  7. ... on December 19, 2009 at 9:49 PM