एक दिन भी जी मगर तू ताज बन कर जी
अटल विश्वास बन कर जी
अमर युग गान बन कर जी
आज तक तू समय के पदचिन्ह सा ख़ुद को मिटा कर
कर रहा निर्माण जग-हित एक सुखमय स्वर्ग सुन्दर
स्वार्थी दुनिया मगर बदला तुझे यह दे रही है-
भूलता यह-गीत तुझको ही सदा तुझसे निकल कर
'कल' न बन तू ज़िन्दगी का 'आज' बन कर जी
जगत सरताज बन कर जी
जन्म से तू उड़ रहा निस्सीम इस नीले गगन पर
किन्तु फिर भी छाँह मंज़िल की नहीं पड़ती नयन पर
और जीवन-लक्ष्य पर पहुंचे बिना जो मिट गया तू-
जग हँसेगा ख़ूब तेरे इस करुण असफल मरण पर
ओ मनुज !मत विहग बन, आकाश बन कर जी
अटल विश्वास बन कर जी
एक युग की आरती पर तू चढ़ाता निज नयन ही
पर कभी पाषाण क्या ये पिघल पाए एक क्षण भी
आज तेरी दीनता पर पड़ रही नज़रें जगत की
भावना पर हँस रही प्रतिमा धवल, दीवार मठ की
मत पुजारी बन स्वयं भगवान् बन कर जी
अमर युग गान बन कर जी
रचयिता : पद्मश्री गोपालदास 'नीरज'
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
4 comments:
Simply Poet said...
वाह बहुत खूब लिखा हैं
आज की युवा पीढ़ी को यह ज़रूर पढ़ना चाहिए
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निर्मला कपिला said...
'कल' न बन तू ज़िन्दगी का 'आज' बन कर जी
जगत सरताज बन कर जी
वाह बहुत सुन्दर बधाई नीरज जी को ।
डॉ टी एस दराल said...
एक दिन भी जी मगर तू ताज बन कर जी
'कल' न बन तू ज़िन्दगी का 'आज' बन कर जी
बेहद सुंदर पंक्तियाँ।
Rajat Narula said...
बहुत भावः पूर्ण लेख है, आपकी संवेदनशीलता सीप के मोती की तरह उज्वल और ओस की बूंदों की तरह निर्मल है...