हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
रचयिता - दुष्यंत कुमार
प्रस्तुति - अलबेला खत्री
5 comments:
Randhir Singh Suman said...
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
nice
डॉ टी एस दराल said...
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
बहुत खूब।
Khushdeep Sehgal said...
जवाब में दुष्यंत जी की ही दो लाइनें...
देखते हैं इस आसमां में सूराख कैसे नहीं होता,
ज़रा एक पत्थर तो तबीयत तो तबीयत से उछालो यारो...
जय हिंद...
Prem said...
कवि सम्मलेन की सभी प्रस्तुतियां पढ़ी ,मज़ा आ गया ,नामी कवियों की रचनाएँ एक जगह पढ़ कर अच्छा लगा ,शुक्रिया ,शुभकामनायें ।
Ambarish said...
meri favorite gajal hai... mujhe yaad hai, school ke dino se hi iski slightly rearranged 4 lines meri pahchan bani thi..
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए...
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए...