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परिन्दों
के लिए जो छत पे दाना छोड़ देते हैं


हम ऐसे दोस्तों को आज़माना छोड़ देते हैं




अगर महसूस हो जाए कि भाई अपना भूखा है


तो दस्तरखान पर भी अपना खाना छोड़ देते हैं




हिकारत से गरीबों को जहाँ पर देखा जाता है


हम ऐसी महफ़िलों में आना जाना छोड़ देते हैं




शायर : नज़ीर अकबर "नज़ीर"


प्रस्तुति : अलबेला खत्री


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4 comments:

    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

    शायर : नज़ीर अकबर "नज़ीर" की गजल पढ़वाने के लिए शुक्रिया!

  1. ... on November 6, 2009 at 8:19 PM  
  2. Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

    अच्छा पढ़वाने के लिए आभार.

  3. ... on November 6, 2009 at 8:56 PM  
  4. IMAGE PHOTOGRAPHY said...

    नजीर जी गजल को सलाम

  5. ... on November 6, 2009 at 9:02 PM  
  6. डॉ टी एस दराल said...

    अच्छे भाव. आभार

  7. ... on November 7, 2009 at 1:20 AM