बरसता रहे इसी तरह
दिन भर, रात भर
अंत-श्रावण का यह मेघ
भिगोता रहे इसी तरह
खेतिहर मज़दूर - मज़दूरनियों
के अंग- अंग
अंत श्रावण का यह मेघ
सुनता रहे इसी तरह
रिक्शा वाले दिलफेंक
छोकरे की गाली
अंत श्रावण का यह मेघ
लोको के आस पास
अर्धदग्ध छिटके-फिके
कोयले चुनती
बड़ी आँखों वाली छोकरी का
उलाहना भी
सुनता रहे इसी तरह
अंत श्रावण का यह मेघ
तर-ब-तर करता रहे
इसी तरह
अलसी के तेल से चिकनाया
उसका जूड़ा
अंत श्रावण का यह मेघ
रचयिता : नागार्जुन
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
1 comments:
शरद कोकास said...
जो लोग वातानुकूलित कांच के घरो मे कैद रह्ते है मेघ उनपर यह आनन्द बरसाते भी नही है यह सुख तो हम जैसे आसमान को ओढकर धरती को बिछौना बनाने वाले ही जानते हैं । बाबा की इस अद्भुत कविता के लिये अलबेला भाई आपको मन से धन्यवाद ।