मैं उनका ही होता,
जिन में मैंने रूप-भाव पाये हैं
वे मेरे ही हिये बंधे हैं
जो मर्यादायें लाये हैं
मेरे शब्द,भाव उनके हैं,
मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
ऐसे किन्तु चाव उनके हैं
मैं ऊँचा होता चलता हूँ
उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछलेपन से ख़ुद-ख़ुद,
मैं गहरा होता चलता हूँ
रचयिता : गजानन. मा. मुक्तिबोध
प्रस्तुति : अलबेला खत्री .
जिन में मैंने रूप-भाव पाये हैं
वे मेरे ही हिये बंधे हैं
जो मर्यादायें लाये हैं
मेरे शब्द,भाव उनके हैं,
मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
ऐसे किन्तु चाव उनके हैं
मैं ऊँचा होता चलता हूँ
उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछलेपन से ख़ुद-ख़ुद,
मैं गहरा होता चलता हूँ
रचयिता : गजानन. मा. मुक्तिबोध
प्रस्तुति : अलबेला खत्री .
5 comments:
मनोज कुमार said...
गजानन. मा. मुक्तिबोध को श्रद्धा नमन।
अर्कजेश said...
ये काम काम का रहा । मुक्तिबोध की एक कविता पढवा दिए । धन्यवाद ।
Udan Tashtari said...
आभार इसे पढ़वाने का. मुक्तिबोध को श्रद्धा नमन।
डॉ टी एस दराल said...
आभार.
शरद कोकास said...
इस गहराई को पाना केवल मुक्तिबोध के लिये ही सम्भव है ..हम तो बस डूबते-उतराते रहते हैं ।