पावस ऋतु
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश !
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्रदृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पड़ा ताल
दर्पण सा फैला है विशाल !
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद से नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों से सुंदर !
झरते हैं झाग भरे निर्झर !
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं - से तरुवर
हैं झांक रहे नीरव नभ पर,
अनिमेष,अटल, कुछ चिन्ता पर !
उड़ गया अचानक, लो भूधर !
फड़का अपार वारिद के पर !
रव-शेष रह गए हैं निर्झर !
है टूट पड़ा भू पर अम्बर !
धँस गए धरा में समय शाल !
उठ रहा धुंआ, जल गया ताल !
-यों जल्द यान में विचर-विचर,
था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल !
रचयिता : सुमित्रानन्दन "पंत"
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
5 comments:
पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...
बियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड कर आँखों से चुप - चाप
बही होगी कविता अनजान
- सुमित्रानंदन पन्त
मनोज कुमार said...
पंत काव्य में प्रकृति के अनेक मनोरम रूपों का मधुर और सरस चित्रण का अनूठा उदाहरण “पर्वत प्रदेश में पावस” कविता में होता है जिनमें कवि की जन्मभूमि के प्राकृतिक सौन्दर्य का वैभव विद्यमान है। प्रेम और आत्म-उद्बोधन के सम्मिलन से प्रकृति-चित्रों का ऐसा अद्भुत आकर्षण अन्य कहीं नहीं मिलता।
“धँस गए धरा में समय शाल
उठ रहा धु्आँ, जल गया ताल
यों जलद यान में विचर-विचर
था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल ”
शेफाली पाण्डे said...
aaj mere dadaji ko yaad kiya aapne..dhanyavad
डॉ टी एस दराल said...
वाह जी वाह, अंतर्मन तक उतर गई ये कविता।
धन्य हो गए।
आभार।
शरद कोकास said...
पहाड़ के असली कवि तो पंत जी ही थे बाकी तो सब दिल्ली के हो गये हैं ।