लीडरी का लोभ 'काका' इसलिए नहीं छोड़ता हूँ
बैठ कर आराम से,आराम कुर्सी तोड़ता हूँ
बोल कर 'जयहिंद' बन्दा शुद्ध खादी धारता है
मंच के ऊपर पहुँच, लम्बी छलांगें मारता है
देख कर झंडा तिरंगा हाथ दोनों जोड़ता हूँ
जब नशीली वस्तुओं को दे के धरना रोकता था
जो कोई आता पियक्कड़, मैं उसी को टोकता था
आजकल तो बोतलों पर बोतलें नित फोड़ता हूँ
नेतागीरी की बदौलत काम मेरा चल रहा था
आज तक इसके सहारे घास दाना मिल रहा था
इसलिए मैं नोट देकर, वोट उनके तोड़ता हूँ
जिस तरह भी हो सके, धन रात-दिन पैदा करूँगा
है यही विश्वास मन में मार कर सबको मरूँगा
शर्म के परदे में छिप, बेशर्म चादर ओढ़ता हूँ
तोड़ कर कंट्रोल-परमिट, माल अपना बेचता हूँ
जी-हुजूरी की बदौलत, खूब खुल कर खेलता हूँ
दोस्तों की महफ़िलों में डींग लम्बी छोड़ता हूँ
राम जी ऊँचा रखे, सरकार का रंगीन झंडा
तब तो आलू भी न थे, अब खा रहे भरपेट अंडा
फाड़ कर परमार्थ-पौधा, स्वार्थ अपना ढूंढता हूँ
रचयिता : काका हाथरसी
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
6 comments:
Anil Pusadkar said...
आभार अलबेला जी,काका की रचना पढने का मौका देने का।
Unknown said...
काका हाथरसी जी की तो बात ही निराली है! उनकी तो कई कुण्डलियाँ मुझे अभी भी याद हैं जैसे किः
आये जब इंगलैंड से भारत विलियम डंग।
खाकर गर्म जलेबियाँ डंग रह गये डंग॥
डंग रह गये दंग, इसे किस तरह बनाता?
ताज्जुब है इसके अन्दर रस कैसे भर जाता?
बैरा बोला सर! इसको आर्टिस्ट बनाते।
बन जाता तब इन्जेक्शन से रस पहुँचाते॥
डॉ टी एस दराल said...
हम तो काका के हंसगुल्ले सुन सुन कर ही बड़े हुए हैं।
आभार काका से एक बार फ़िर मिलवाने का।
Urmi said...
जब नशीली वस्तुओं को दे के धरना रोकता था
जो कोई आता पियक्कड़, मैं उसी को टोकता था
जिस तरह भी हो सके, धन रात-दिन पैदा करूँगा
है यही विश्वास मन में मार कर सबको मरूँगा...
वाह बहुत सुंदर पंक्तियाँ! काका हाथरसी जी की रचना पढने का मौका मिला उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
शरद कोकास said...
काका को यह पीढ़ी भूलने लगी है हो सके तो काका पर एक आलेख भी लिखिये ।
Ambarish said...
bahut bahut shukriya ham jaise logono (jinhone sirf kaka hathrasi puraskaar ka naam suna tha aur kabhi ye janne ki koshish nahi ki ke ye the kaun..) kaka ji ki itni acchi rachna pahunchane ke liye... ho sake to inki rachnaon ke sankalan ka koi source bata dijiye..