हो गया है हर इकाई का विभाजन
राम जाने गिनतियाँ कैसे बढ़ेंगी ?
अंक अपने आप में पूरा नहीं है
इसलिए कैसे दहाई को पुकारे
मान, अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का
कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे
जोड़-बाकी एक से दिखने लगते हैं
राम जाने पीढियां कैसे पढ़ेंगी ?
शेष जिसमें कुछ नहीं ऐसी इबारत
ग्रन्थ के आकार में आने लगी है
और मजबूरी, बिना हासिल किए कुछ
साधनों का कीर्तन गाने लगी है
मांग का मुद्रण नहीं करती मशीनें
राम जाने कीमतें कितनीं चढेंगी ?
भूल बैठे हैं, गणित, व्यवहार का हम
और बिल्कुल भिन्न होते जा रहे हैं
मूलधन इतना गंवाया है कि ख़ुद से
ख़ुद-ब-ख़ुद ही खिन्न होते जा रहे हैं
भाग दें तो भी बड़ी मुश्किल रहेगी
राम जाने सर्जनाएं क्या गढेंगी ?
रचयिता : मुकुट बिहारी सरोज
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
1 comments:
शरद कोकास said...
अरे वा दद्दा का गीत ..उनके साथ बिताई एक शाम याद आ गई धन्य हो अलबेला भाई !!