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आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है

प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है



अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ

साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है



ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना

बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है



रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल करना

ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है



कितनी ऊँची है नीचाई इस भोले सौदाई की

आसमान होकर, धरती पर पाँव पाँव ये चलता है


रचयिता : माणिक वर्मा

प्रस्तुति : अलबेला खत्री








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6 comments:

    Unknown said...

    सही है! हम भी बूढ़े हो गये हैं इसलिये खाली-पीली बोम मारते रहते हैं।

  1. ... on November 20, 2009 at 9:38 PM  
  2. Kusum Thakur said...

    "आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है

    प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है"

    बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं .

  3. ... on November 21, 2009 at 4:26 AM  
  4. पूनम श्रीवास्तव said...

    अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ

    साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है
    ्वैसे तो पूरी गजल ही उम्दा है---पर ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं।माणिक जी को हर्दिक बधाई।
    पूनम

  5. ... on November 22, 2009 at 6:56 AM  
  6. शरद कोकास said...

    माणिक जी को भी लोग भूलने लगे है ..इन पर भी एक आलेख की दरकार है ।

  7. ... on November 22, 2009 at 10:34 AM  
  8. Urmi said...

    ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना
    बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है
    रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल न करना
    ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है...
    बहुत सुंदर पंक्तियाँ ! शानदार रचना!

  9. ... on November 23, 2009 at 1:45 AM  
  10. निर्मला कपिला said...

    अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ

    साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है
    vaah bahut khoob

  11. ... on December 7, 2009 at 10:58 PM