लीजिये पेश है आज व्यंग्य सम्राट माणिक वर्मा की ग़ज़ल प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है
आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है
प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है
अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ
साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है
ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना
बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है
रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल न करना
ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है
कितनी ऊँची है नीचाई इस भोले सौदाई की
आसमान होकर, धरती पर पाँव पाँव ये चलता है
रचयिता : माणिक वर्मा
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
6 comments:
Unknown said...
सही है! हम भी बूढ़े हो गये हैं इसलिये खाली-पीली बोम मारते रहते हैं।
Kusum Thakur said...
"आँसू भीगी मुस्कानों से हर चेहरे को तकता है
प्यार नाम का बूढ़ा व्यक्ति जाने क्या-क्या बकता है"
बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं .
पूनम श्रीवास्तव said...
अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ
साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है
्वैसे तो पूरी गजल ही उम्दा है---पर ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं।माणिक जी को हर्दिक बधाई।
पूनम
शरद कोकास said...
माणिक जी को भी लोग भूलने लगे है ..इन पर भी एक आलेख की दरकार है ।
Urmi said...
ढाई आखर का यह बौना, भीतर से सोना ही सोना
बाहर से इतना साधारण, हम-तुम जैसा लगता है
रिश्तों की किश्तें मत भरना, इससे मन का मोल न करना
ये ऐसा सौदागर है जो ख़ुद लुट कर भी ठगता है...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ ! शानदार रचना!
निर्मला कपिला said...
अंजुरी भर यादों के जुगनूँ, गठरी भर सपनों का बोझ
साँसों भर इक नाम किसी का पहरों-पहरों रटता है
vaah bahut khoob