ताज़ा टिप्पणियां

विजेट आपके ब्लॉग पर
अमेरिका निवासी डॉ सुदर्शन 'प्रियदर्शिनी'

अत्यन्त सौम्य और मर्मस्पर्शी कवितायें करती हैं .

आज कवि सम्मेलन में इनकी कविता का आनन्द लीजिये....



________चेहरा


इस धुन्धयाये

खण्डित

सहस्त्र दरारों वाले

दर्पण में

मुझे अपना चेहरा

साफ़ नहीं दिखता



जब कभी

खण्डित कोने से

दीख जाता है

तो

कहीं अहम्

कहीं स्वार्थ की

बेतरतीब लकीरों से

कता-पिटा होता है




रचयिता : डॉ सुदर्शन 'प्रियदर्शिनी'


प्रस्तुति : अलबेला खत्री


This entry was posted on 1:43 AM and is filed under . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

2 comments:

    डॉ टी एस दराल said...

    आज का मनुष्य है ही ऐसा की आइना देखने से डर जाता है.
    क्योंकि अपना ही चेहरा इतना बदसूरत होता है, स्वार्थ और बेईमानी से भरा हुआ .
    अच्छी रचना के लिए आभार.

  1. ... on November 14, 2009 at 1:45 AM  
  2. शरद कोकास said...

    आप तो सुदर्शन है दोष दर्पण का नही है ।

  3. ... on November 22, 2009 at 10:22 AM