ग़ज़ल
कैसी मुश्किल में पड़ गया हूँ मैं
अपने दर्पण से लड़ गया हूँ मैं
हँसते हँसते उदास होता हूँ
बसते बसते उजड़ गया हूँ मैं
कोई मधु-ऋतु नहीं,नहीं पतझड़
ऐसा जड़ से उखड़ गया हूँ मैं
सब के आगे स्वयं को दिखता हूँ
हाय, कैसा पिछड़ गया हूँ मैं
कैसा ठहराव सा ये है ठहराव
आधा मरुथल में गड़ गया हूँ मैं
ऊब ने निर्वसन किया इतना
तन से मन तक उखड़ गया हूँ मैं
जुड़ न पाया हूँ बस चुभन बाकी
सिलते सिलते उधड़ गया हूँ मैं
मेरा सावन कभी न आएगा
"सोम" कितना उजड़ गया हूँ मैं
रचयिता : सोम ठाकुर
प्रस्तुति : अलबेला खत्री
1 comments:
नीरज गोस्वामी said...
सोम जी की ग़ज़ल पर क्या टिपण्णी की जाये...अद्भुत है...
नीरज